चर्चा में क्यों
हाल ही में
रिज़र्व बैंक
ऑफ़ इंडिया
(RBI) के सामने
एक नामुमकिन
चुनौती है.
उसे आर्थिक
वृद्धि की
रफ़्तार घटाए
बिना, महंगाई
पर लगाम
लगानी है.
इस मक़सद
के लिए
उसके पास
चार औज़ार
हैं: घरेलू
ब्याज़ दरें
तय करना,
तरलता प्रबंधन,
विदेशी मुद्रा
विनिमय दरों
में उतार-चढ़ाव रोकने
के लिए
विदेशी मुद्रा
भंडार का
इस्तेमाल करना
और बैंकिंग
क्रियाकलापों को नियमित करने का
अधिकार. इनमें
से आख़िरी
उपाय केंद्रीय
बैंक की
बुनियादी भूमिकाओं
में से
एक है.
बहरहाल, इस
सिलसिले में
रिज़र्व बैंक
को मददगार
राजकोषीय नीति
की उम्मीद
रहेगी.
ब्याज़ दर में
बढ़ोतरी से
महंगाई पर
नकेल
·
एक ही वक़्त
पर ब्याज़
दर के
मोर्चे पर
की गई
कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय
निवेशकों के
लिए इस
बात का
संकेत है
कि RBI जैसा
राष्ट्रीय मौद्रिक प्राधिकार, स्थायित्व के
बचाव के
लिए प्रतिबद्ध
है.
·
30 सितंबर
2022 को RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने
कहा “केंद्रीय
बैंक दरों
में आक्रामक
बढ़ोतरी से
नए फ़ासले
तय कर
रहे हैं,
चाहे इससे
निकट भविष्य
में आर्थिक
वृद्धि की
कुर्बानी ही
क्यों न
देनी पड़े.”
इस तरह
उन्होंने घरेलू
ब्याज़ दरों
को, विकसित
अर्थव्यवस्थाओं में ब्याज़ दरों में
होने वाली
बढ़ोतरी से
जोड़ने की
मजबूरी को
भी रेखांकित
किया. हालांकि
विकसित अर्थव्यवस्थाओं
की तरह
हमारी अर्थव्यवस्था
को प्रोत्साहनकारी
वित्तीय नीतियों
का लाभ
नहीं मिल
पाया है.
·
यही नीति मुद्रास्फीति
की ऊंची
दर के
पहले की
कड़ी है,
जिसका मक़सद
था- पारिवारिक
आमदनी की
हिफ़ाज़त के
लिए अदा
की जाने
वाली क़ीमत
और महामारी
में आई
मंदी के
बीच कारोबार
जगत की
मदद करना.
·
भारत में प्रोत्साहनकारी
उपाय निचले
स्तर पर
थे. केंद्र
और राज्य
सरकारों का
संयुक्त राजकोषीय
घाटा 2019-20 में जीडीपी के 7.2 प्रतिशत
के बराबर
था, जो
2020-21 में तेज़ी से बढ़कर 13.9 प्रतिशत
हो गया
और आगे
चलकर 2021-22 में 10.4 प्रतिशत रह गया.
·
हालांकि हमारी अर्थव्यवस्था
2008-09 के वैश्विक आर्थिक संकट के
बाद से
ही धीमी
आंच पर
गर्म हो
रही थी.
2008-09 में राजकोषीय घाटा 8.3 प्रतिशत तक
पहुंच गया
था. बाद
के साल
(2009-10) में वित्तीय घाटा 9.3 प्रतिशत पर
था.
·
राजकोषीय
जवाबदेही और
बजटीय प्रबंधन
अधिनियम, 2004 (FRBM) के तहत
राजकोषीय घाटे
का अनुमानित
लक्ष्य 3 प्रतिशत
तय किया
गया है.
हालांकि बाद
के कालखंड
में इस
लक्ष्य के
हिसाब से
कम होने
की बजाए
राजकोषीय घाटा
2010-11 से 2019-20 तक 10 में
से 9 वर्षों
तक तक़रीबन
7 प्रतिशत के इर्द गिर्द रहा
है.
वित्तीय नीति लगातार
टिकाऊ सीमा
से ऊपर
·
महामारी और यूक्रेन
संकट के
तौर पर
दोहरी मार
झेलने के
पहले से
ही ढीली-ढाली राजकोषीय
नीति में
मुद्रास्फीति से जुड़ी आशंकाएं जुड़ी
हुई थीं.
·
इसने धीरे-धीरे
प्रोत्साहनकारी उपायों पर अमल करने
की वित्तीय
क्षमताओं (विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह)
को कमज़ोर
कर दिया.
लिहाज़ा महामारी
के दौरान
बेहद नियंत्रित
और लक्षित
वित्तीय नीति
अपनाने की
ही छूट
मिल पाई.
·
ऐसा लगता है
कि आपूर्ति
पक्ष से
क़ीमतों से
जुड़े चंद
झटके मुख्य
महंगाई के
साथ जुड़
गए हैं.
दरअसल घरेलू
मोर्चे पर
मूल्य वर्धन
और नौकरियों
के निर्माण
को वरीयता
दी जा
रही है.
इसके हिसाब
से नए
सिरे से
आपूर्ति के
स्रोत तैयार
करने या
घरेलू स्तर
पर आपूर्ति
किए जाने
से आपूर्ति
श्रृंखला का
स्थायी पुनर्निर्धारण
हो गया
है.
·
दरअसल ढीली-ढाली
राजकोषीय नीति
के चलते
ब्याज़ दरों
में होने
वाली बढ़ोतरी
की मुद्रास्फीति
को कुंद
करने की
ताक़त मंद
पड़ जाती
है. केंद्र
सरकार का
राजकोषीय घाटा
2025-26 तक जीडीपी के 4.5 प्रतिशत के
स्तर से
ऊपर ही
बना रहेगा.
·
राज्य सरकारों के
लिए अतिरिक्त
2 फ़ीसदी वित्तीय
घाटे की
छूट दिए
जाने से
संयुक्त राजकोषीय
घाटा जीडीपी
के 6 प्रतिशत
के स्तर
के आस-पास पहुंच
जाता है,
जो FRBM क़ानून
के तहत
तय 3 प्रतिशत
की सीमा
से काफ़ी
ऊपर है.
घरेलू मुद्रा की
सुरक्षा
·
रिज़र्व बैंक की
मौद्रिक नीति
समिति ने
30 सितंबर 2022 को रेपो रेट (वो
दर जिसपर
वाणिज्यिक बैंक RBI से ऋण ले
सकते हैं)
में 0.5 प्रतिशत
अंक की
बढ़ोतरी (5.40 से 5.90 फ़ीसदी) कर दी.
आशिंक तौर
पर इसकी
वजह पूंजी
का पलायन
(जिससे मुद्रा
पर दबाव
बढ़ता है)
रोकने के
लिए घरेलू
ब्याज़ दरों
को प्रतिस्पर्धी
बनाए रखने
की क़वायद
है.
·
RBI की इस मुस्तैद
कार्रवाई से
साफ़ है
कि वो
व्यापक अर्थव्यवस्था
में स्थायित्व
बरक़रार रखने
के लिए
कथनी को
करनी में
बदलने का
इरादा रखता
है, ताकि
भरोसा पैदा
हो और
निवेशकों के
बीच सकारात्मक
धारणा बने.
·
भारत में रेपो
रेट अब
अमेरिकी फ़ेडरल
रिज़र्व की
दर (3.75 फ़ीसदी)
से 2 प्रतिशत
अंक से
भी ज़्यादा
है. ये
ना तो
किसी सनक
का नतीजा
है और
ना ही
कोई असाधारण
बात. वैश्विक
आर्थिक संकट
के दौरान
ब्याज़ दरों
में अंतर
4.75 से लेकर
6.25 प्रतिशत के बीच बदलता रहा
था.
·
भारत में फ़िलहाल
महंगाई दर
7 प्रतिशत है, जो अमेरिका और
यूरोप के
अन्य विकसित
अर्थव्यवस्थाओं से 1 फ़ीसदी (या ज़्यादा)
नीचे है.
लिहाज़ा भारत
में पूर्व
के मुक़ाबले
इस वक़्त
इन दरों
में निम्न
अंतर जायज़
दिखाई देता
है. उम्मीद
है कि
अमेरिकी फ़ेडरल
रिज़र्व 2023 के मध्य तक 4.5 से
5 प्रतिशत के बीच FF दर (ऊपरी
सीमा) का
लक्ष्य लेकर
चलेगा. इसका
मतलब ये
है कि
महज़ मौजूदा
अंतरों को
बरक़रार रखने
के लिए
इस वित्त
वर्ष के
ख़ात्मे से
पहले रेपो
रेट बढ़कर
6.5 से 7 प्रतिशत
तक पहुंच
सकता है.
·
फ़ेडरल रिज़र्व द्वारा
आसान मुद्रा
नीति को
पलटे जाने
से अमेरिकी
डॉलर का
भाव सभी
मुद्राओं के
मुक़ाबले काफ़ी
बढ़ गया
है. दूसरी
अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की तुलना में
भारतीय रुपए
में कम
गिरावट दर्ज
की गई
है- 28 सितंबर
2022 के हिसाब
से रुपए
में साल
में 9 प्रतिशत,
जबकि चीनी
युआन में
23 प्रतिशत की गिरावट हुई है.
·
इस तरह हमारा
आयातित महंगाई
से बचाव
हो जाता
है, लेकिन
निर्यात की
प्रतिस्पर्धा को नुक़सान पहुंचता है.
दरअसल रुपए
पर बिक्री
का दबाव
थामने के
लिए विदेशी
मुद्रा भंडार
का इस्तेमाल
किया जाता
है.
आर्थिक वृद्धि की
सुरक्षा
·
रेपो रेट में
बदलाव के
पीछे मुद्रा
के प्रबंधन,
महंगाई की
रोकथाम और
आर्थिक वृद्धि
के बचाव
में कुशलतापूर्वक
संतुलन साधने
का लक्ष्य
रहता है.
मई 2014 में
मोदी सरकार
के सत्ता
संभालते वक़्त
रेपो रेट
8 प्रतिशत के स्तर पर था.
अगले तीन
वर्षों यानी
अगस्त 2017 तक ये 6 प्रतिशत तक
घट गया.
·
अप्रैल
2019 से इसमें
धीरे-धीरे
गिरावट का
दौर देखा
गया. मई
2020 तक ये
दर 4 प्रतिशत
तक आ
गया और
अप्रैल 2022 तक इसी स्तर पर
बना रहा.
मई 2022 से
सितंबर 2022 के बीच पांच महीनों
के कालखंड
में इसमें
1.9 प्रतिशत अंकों की बढ़ोतरी हुई
और रेपो
रेट 5.9 प्रतिशत
पर पहुंच
गया. अंतरराष्ट्रीय
बेंचमार्क दरों में सख़्ती के
चलते ये
दौर देखने
को मिला
है. दरअसल
अगस्त 2022 में भारत में घरेलू
मुद्रास्फीति 7 प्रतिशत पर थी, जबकि
बाहरी स्तर
पर इसका
मानक 6 प्रतिशत
का है.
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