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सामान्य अध्ययन पेपर – III  प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन


संदर्भ

ग्रेट निकोबार परियोजना वर्तमान में भारत की रणनीतिक सुरक्षा और नीली अर्थव्यवस्था की महत्वाकांक्षाओं के केंद्र में है। इस परियोजना पर बहस तब तेज हुई, जब इसकी पर्यावरणीय मंज़ूरी को लेकर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) में कानूनी चुनौतियाँ सामने आईं और साथ ही प्रस्तावित विकास क्षेत्र से दुर्लभ जैव-विविधता की नई प्रजातियों की खोज ने इस द्वीप के पारिस्थितिक महत्त्व को रेखांकित किया। यह विषय भू-राजनीतिक अनिवार्यता और सतत विकास के बीच संतुलन की चुनौती प्रस्तुत करता


ग्रेट निकोबार परियोजना

ग्रेट निकोबार द्वीप समूह (GNI) परियोजना भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी मेगा-इंफ्रास्ट्रक्चर विकास योजना है, जिसकी अनुमानित लागत लगभग ₹72,000 करोड़ से ₹92,000 करोड़ है। इसे नीति आयोग द्वारा परिकल्पित किया गया है और इसका कार्यान्वयन अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह एकीकृत विकास निगम (ANIIDCO) द्वारा किया जा रहा है।

परियोजना के मुख्य घटक

स्थान

उद्देश्य

अंतर्राष्ट्रीय कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल (ICTT)

गैलथिया बे

भारत को वैश्विक ट्रांसशिपमेंट हब बनाना।

ग्रीनफील्ड अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा

लगभग 13 किमी दूर

नागरिक और रक्षा (दोहरे उपयोग) हेतु संपर्क बढ़ाना।

आधुनिक टाउनशिप

अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के निकट

परियोजना कर्मचारियों और बढ़ते शहरीकरण की ज़रूरतों को पूरा करना।

गैस-सौर ऊर्जा संयंत्र

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द्वीप के लिए आत्मनिर्भर, हरित ऊर्जा सुनिश्चित करना।


चर्चा में क्यों?

  • ग्रेट निकोबार द्वीप पर प्रस्तावित मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट वाले क्षेत्र में जैव-विविधता से जुड़ी कई महत्वपूर्ण नई प्रजातियों की खोज हुई है।
  • वर्ष 2021 से इस क्षेत्र में लगभग 40 नई प्रजातियों की पहचान की गई है, जिनमें से लगभग आधी केवल वर्ष 2025 में ही दर्ज की गई हैं।
  • खोजी गई प्रजातियों में एक नई साँप की प्रजाति वुल्फ स्नेक शामिल है, जिसे उसके दुर्लभ होने के कारण IUCN रेड लिस्ट में "लुप्तप्राय" के रूप में वर्गीकृत करने की सिफारिश की गई है। एक संभावित नई क्रैक पक्षी प्रजाति भी खोजी गई है।
  • इन नियमित खोजों ने द्वीप के समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र की ओर ध्यान आकर्षित किया है, और प्रमुख पर्यावरणविदों ने परियोजना क्षेत्र की जैव-विविधता के पूर्ण संरक्षण की मांग को दोहराया है।


परियोजना का सामरिक महत्त्व

यह परियोजना मात्र एक आर्थिक उद्यम नहीं है, बल्कि हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में भारत की सामरिक सुरक्षा और वैश्विक व्यापार महत्वाकांक्षाओं के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।


भारत बनाम चीन, श्रीलंका संदर्भ और वैश्विक परिदृश्य

  • चीन को रणनीतिक जवाब: ग्रेट निकोबार द्वीप मलक्का जलडमरूमध्य (Malacca Strait) से निकट है, जो दुनिया के सबसे व्यस्त शिपिंग मार्गों में से एक है। यह स्थान चीन की 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' रणनीति (जैसे ग्वादर और हंबनटोटा) का मुकाबला करने के लिए भारत को एक शक्तिशाली फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस प्रदान करता है।
  • श्रीलंका और निगरानी का मुकाबला: यदि चीन कोलंबो या हंबनटोटा जैसे स्थानों का उपयोग सैन्य अड्डे या भारत पर निगरानी के लिए करता है, तो ग्रेट निकोबार में दोहरे उपयोग वाले हवाई अड्डे और नौसैनिक-सक्षम पोर्ट का विकास भारत को पूर्वी IOR में त्वरित प्रतिक्रिया और प्रभावी निगरानी क्षमता प्रदान करता है। यह चीन के विस्तारवादी समुद्री दावों को संतुलित करने में एक महत्त्वपूर्ण "रणनीतिक अवरोधक" के रूप में कार्य करेगा।
  • वैश्विक व्यापार हब: यह परियोजना सिंगापुर, कोलंबो जैसे विदेशी ट्रांसशिपमेंट हब पर भारत की निर्भरता को कम करेगी, जिससे देश का लगभग 75% ट्रांसशिप्ड कार्गो भारतीय नियंत्रण में जाएगा।


 नई प्रजातियाँ एवं जैव-विविधता

खोजी गई नई प्रजातियाँ गैलथिया खाड़ी और आसपास के वर्षावन पारिस्थितिकी तंत्र के अद्वितीय और स्थानिक महत्त्व पर जोर देती हैं।

  • नई प्रजातियाँ: इनमें एक नई वुल्फ स्नेक प्रजाति और संभावित नई क्रैक पक्षी प्रजाति शामिल हैं।
  • ये खोजें दर्शाती हैं कि यह क्षेत्र अभी भी वैज्ञानिक रूप से अज्ञात है और इसमें ऐसे जीव शामिल हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाए जाते हैं।
  • ये प्रजातियाँ भारत को जैव-विविधता के 'हॉटस्पॉट' के रूप में स्थापित करती हैं।
  • परियोजना का विकास लेदरबैक समुद्री कछुए के सबसे महत्वपूर्ण घोंसले के स्थलों और इन स्थानिक प्रजातियों के आवास को अपरिवर्तनीय क्षति पहुँचा सकता है।


कानूनी एवं विनियामक घटनाक्रम

परियोजना को लेकर कानूनी विवाद और विनियामक चुनौतियाँ लगातार चर्चा में रही हैं:

  • पर्यावरण और वन मंज़ूरी (EC/FC): परियोजना को वर्ष 2022 में पर्यावरण और वन मंज़ूरी मिल चुकी है, लेकिन यह मंज़ूरी कठोर संरक्षण और शमन उपायों की शर्त पर आधारित है।
  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT): परियोजना को दी गई पर्यावरणीय मंज़ूरी को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में चुनौती दी गई है, और दिसंबर 2025 में NGT ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था, जो परियोजना के भविष्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण विनियामक अनिश्चितता पैदा करता है।
  • जनजातीय अधिकार (FRA): वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 के उल्लंघन के गंभीर आरोप लगे हैं। एक्टिविस्ट्स का दावा है कि विशेष रूप से शोम्पेन (PVTG) और निकोबारी जनजातियों की भूमि के उपयोग से पहले ग्राम सभाओं की अनिवार्य सहमति नहीं ली गई है।


भारत सरकार का दृष्टिकोण

सरकार परियोजना को राष्ट्रीय हित के रूप में देखती है और इसके लाभों को चुनौतियों से अधिक महत्त्व देती है:

  • राष्ट्रीय संपत्ति: सरकार ने NGT में तर्क दिया है कि यह परियोजना एक 'राष्ट्रीय संपत्ति' बनने जा रही है, जो भारत की समुद्री क्षमता और सुरक्षा को दशकों तक मज़बूत करेगी।
  • शमन और निगरानी: सरकार ने आश्वस्त किया है कि उसने अगले 30 वर्षों के लिए विस्तृत शमन संरक्षण और अनुसंधान कार्यक्रम अनिवार्य किए हैं, जिसमें प्रतिपूरक वनरोपण और प्रभावित वन्यजीवों के स्थानांतरण की योजनाएँ शामिल हैं।
  • जनजातीय कल्याण: सरकार ने यह भी आश्वस्त किया है कि जनजातीय समुदायों को विस्थापित नहीं किया जाएगा और जनजातीय आरक्षित क्षेत्र परियोजना के दायरे से बाहर रहेंगे।


विश्लेषण

ग्रेट निकोबार परियोजना विकास और पारिस्थितिकी के बीच द्वंद्व का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

  • असंतुलित प्राथमिकता: परियोजना की डिज़ाइन में सामरिक और आर्थिक हितों को पर्यावरणीय और जनजातीय चिंताओं पर अत्यधिक प्राथमिकता दी गई है। गैलथिया खाड़ी जैसे महत्त्वपूर्ण प्रजनन स्थल को पोर्ट के लिए चुनना इस असंतुलन को दर्शाता है।
  • पारदर्शिता का अभाव: EIA रिपोर्ट की गुणवत्ता और उच्च पावर्ड कमेटी (HPC) की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने पर उठ रहे सवाल प्रक्रियागत पारदर्शिता की कमी को दर्शाते हैं।
  • लागत-लाभ विश्लेषण: अपरिवर्तनीय पारिस्थितिक क्षति और शोम्पेन जैसी कमजोर जनजातीय समूह की संस्कृति के संभावित विनाश की दीर्घकालिक लागत, अल्पकालिक आर्थिक लाभों पर भारी पड़ सकती है।


आगे की राह

परियोजना की सफलता और स्वीकार्यता सुनिश्चित करने के लिए एक समावेशी और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील मॉडल अपनाना आवश्यक है:

  1. पर्यावरणीय सुधार: पोर्ट को गैलथिया खाड़ी से किसी कम संवेदनशील क्षेत्र में स्थानांतरित करने के विकल्प पर पुन: विचार करना चाहिए।
  2. FRA का कठोर अनुपालन: जनजातीय समुदायों की ग्राम सभाओं से 'सूचित सहमति' प्राप्त करने के लिए FRA, 2006 का कठोरता से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जिससे उनके अधिकारों की रक्षा हो सके।
  3. स्वतंत्र निगरानी: परियोजना के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों की निगरानी के लिए उच्चतम न्यायालय या NGT की देखरेख में एक स्वतंत्र, बहु-विषयक निकाय का गठन किया जाए।
  4. चरणबद्ध विकास: परियोजना को छोटे, चरणबद्ध हिस्सों में कार्यान्वित किया जाए, जिससे


निष्कर्ष

ग्रेट निकोबार परियोजना भारत के लिए एक अभूतपूर्व रणनीतिक और आर्थिक अवसर है, जो देश को हिंद महासागर में एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी बना सकती है। हालाँकि, इस राष्ट्रीय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पारिस्थितिक अखंडता और जनजातीय अधिकारों की अनदेखी करना केवल नैतिक रूप से गलत है, बल्कि दीर्घकालिक स्थिरता के दृष्टिकोण से भी जोखिम भरा है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि 'विकसित भारत' का निर्माण करते समय, विकास का मार्ग "सुरक्षा, संप्रभुता और सततता" के सिद्धांतों पर संतुलित रूप से चले, ताकि यह परियोजना विनाश का नहीं, बल्कि जिम्मेदार विकास का एक वैश्विक मॉडल बन सके।

सामान्य अध्ययन पेपर – III  प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन।


संदर्भ

भारत के अनुसंधान एवं विकास (R&D) परिदृश्य में व्यक्त की जा रही वर्तमान चिंताएँ, सकल घरेलू अनुसंधान एवं विकास व्यय (GERD) के निम्न स्तर (जो GDP का लगभग 0.65% है) से उत्पन्न होती हैं। ये समस्याएँ भारत को ज्ञान-आधारित महाशक्ति बनाने के ऐतिहासिक राष्ट्रीय लक्ष्य की पूर्ति में रही संरचनात्मक बाधाओं को उजागर करती हैं। स्वतंत्रता के उपरांत, नेहरूवादी युग में "वैज्ञानिक स्वभाव" को प्रोत्साहित करते हुए राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं (CSIR, DRDO, ISRO) की स्थापना से बुनियादी अनुसंधान की नींव रखी गई। हालाँकि, 1990 के दशक के उदारीकरण के बाद भी निजी क्षेत्र अनुसंधान एवं विकासमें अपेक्षित निवेश करने में विफल रहा, जिसके कारण नवाचार की प्रक्रिया सरकारी फंडिंग पर अत्यधिक निर्भर बनी रही और इसका बाज़ारीकरण बाधित हुआ। परिणामस्वरूप, वर्तमान 'अमृत काल' में, जब राष्ट्र 'विकसित भारत' बनने का लक्ष्य साध रहा है, यह अनिवार्य हो गया है कि अनुसंधान को केवल अकादमिक अभ्यास से ऊपर उठाकर बाज़ार-उन्मुख समाधान प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाए; जिसके लिए नवाचार को प्रयोगशाला से उद्योग और फिर बाज़ार तक निर्बाध रूप से ले जाने वाली कुशल पाइपलाइन की स्थापना आज की सबसे बड़ी सामरिक माँग है।


सकल घरेलू अनुसंधान एवं विकास व्यय (GERD) क्या है?

सकल घरेलू अनुसंधान एवं विकास व्यय (GERD) किसी देश के भीतर एक निश्चित अवधि में अनुसंधान और प्रायोगिक विकास गतिविधियों पर किए गए कुल व्यय का माप है।

  • GERD/GDP अनुपात: इसे अक्सर देश की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के रूप में मापा जाता है। यह अनुपात दर्शाता है कि कोई देश अपनी अर्थव्यवस्था की तुलना में अनुसंधान और नवाचार को कितना महत्व देता है।
  • महत्व: GERD का उच्च अनुपात आम तौर पर देश की तकनीकी प्रतिस्पर्धा, नवाचार क्षमता और दीर्घकालिक आर्थिक विकास की संभावनाओं को इंगित करता है।


चर्चा में क्यों:

  • निम्न GERD स्तर: वर्तमान में, भारत का GERD/GDP अनुपात लगभग 0.65% से 0.7% के बीच स्थिर है, जो पिछले एक दशक से अधिक समय से रुका हुआ है।
  • निजी क्षेत्र की उदासीनता: उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, भारत में अनुसंधान एवं विकासफंडिंग का प्रमुख स्रोत सार्वजनिक (सरकारी) क्षेत्र है। निजी क्षेत्र का योगदान कम है और अक्सर अस्थायी होता है, जो सतत अनुसंधान परियोजनाओं के लिए आवश्यक दीर्घकालिक फंडिंग पाइपलाइन को बाधित करता है।
  • पेटेंट का निम्न रूपांतरण: उच्च शिक्षा संस्थानों (HEIs) में उत्कृष्ट शैक्षणिक अनुसंधान हो रहा है, लेकिन यह अनुसंधान बाज़ार-उपयोगी उत्पादों, सफल स्टार्टअप्स, या पेटेंट में अपेक्षानुरूप परिवर्तित नहीं हो पा रहा है।


अनुसंधान पाइपलाइन की आवश्यकता

'भारत को अनुसंधान पाइपलाइन की आवश्यकता है' वाक्यांश का तात्पर्य केवल फंडिंग से नहीं है, बल्कि एक संरचित और कुशल प्रणाली से है जो अनुसंधान को परिणाम तक ले जाए।

  • अनुसंधान पाइपलाइन का अर्थ: यह एक ऐसी प्रणाली है जो बुनियादी अनुसंधान  को एप्लाइड रिसर्च, फिर उत्पाद विकास, और अंततः बाज़ार में सफलता तक बिना किसी रुकावट के ले जाती है।
  • चिंता के कारण:
    • फंडिंग गैप: अनुसंधान की प्रारंभिक और मध्य-चरण की फंडिंग के बीच एक बड़ा अंतर है।
    • मानव संसाधन पलायन: अनुसंधान के लिए पर्याप्त और आकर्षक अवसरों के अभाव में, कुशल वैज्ञानिक और शोधकर्ता विकसित देशों की ओर पलायन कर जाते हैं।
    • नवाचार का क्षरण: एक कुशल पाइपलाइन के बिना, नवाचार या तो लैब तक सीमित रह जाता है या विकसित देशों द्वारा बाज़ार में भुना लिया जाता है, जिससे भारत की तकनीकी संप्रभुता प्रभावित होती है।


वैश्विक परिदृश्य

वैश्विक अनुसंधान एवं विकास लीडर्स अपनी GDP का एक बड़ा हिस्सा अनुसंधान पर खर्च करते हैं, जहाँ निजी क्षेत्र की भागीदारी निर्णायक होती है:

देश/क्षेत्र

GERD/GDP (%)

अनुसंधान एवं विकासमें निजी क्षेत्र का हिस्सा (%)

प्रमुख ध्यान

इज़राइल

>5.0%

80% से अधिक

रक्षा, सॉफ्टवेयर, बायो-टेक्नोलॉजी

दक्षिण कोरिया

>4.8%

75% से अधिक

इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल

अमेरिका

~3.4%

70%

डीप टेक, AI, फार्मा

चीन

~2.4%

78%

AI, क्वांटम कंप्यूटिंग

भारत

~0.65%

~35%

अत्यधिक निम्न, मुख्यतः सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा वित्त पोषित

यह तुलना स्पष्ट करती है कि भारत को एक वैश्विक शक्ति बनने के लिए निजी निवेश को आकर्षित करने और GERD/GDP अनुपात को 2% तक ले जाने की तत्काल आवश्यकता है।


सरकारी पहलें

अनुसंधान पाइपलाइन को मज़बूत करने के लिए सरकार द्वारा कई कदम उठाए गए हैं:

  • राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (NRF): विज्ञान एवं इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB) के स्थान पर ₹50,000 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ NRF की स्थापना की गई है, जिसका मुख्य उद्देश्य निजी क्षेत्र और मंत्रालयों से फंडिंग आकर्षित कर बहु-क्षेत्रीय अनुसंधान को बढ़ावा देना है।
  • विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार नीति (STIP): इसका उद्देश्य अनुसंधान के लिए एक विकेन्द्रीकृत, बॉटम-अप और समावेशी पारिस्थितिकी तंत्र बनाना है।
  • एकेडमिक-इंडस्ट्री टाई-अप: इम्प्रिंट इंडिया (IMPRINT India) और स्टार्स (STARS) जैसी योजनाएं विश्वविद्यालयों को उद्योग-प्रासंगिक अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती हैं।


विश्लेषण

  • कमजोर कड़ी: सबसे कमजोर कड़ी "एप्लाइड रिसर्च टू प्रोटोटाइपिंग" का चरण है। सरकारी फंडिंग अकादमिक शोध को तो सहारा देती है, लेकिन व्यावसायीकरण और बाज़ार में प्रवेश के लिए आवश्यक उच्च जोखिम वाली फंडिंग उद्योग द्वारा नहीं दी जाती है।
  • सरकारी नीतियों की भूमिका: राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन जैसी पहलें एक स्वागत योग्य कदम हैं, लेकिन उन्हें तभी सफलता मिलेगी जब कर प्रोत्साहन को केवल व्यय से हटाकर वास्तविक बाज़ार-परिणामों और उच्च शिक्षा संस्थानों के साथ दीर्घकालिक सहयोग से जोड़ा जाएगा।
  • गुणवत्ता पर ध्यान: पाइपलाइन केवल मात्रा (कितना खर्च किया गया) नहीं, बल्कि गुणवत्ता (कितना प्रभावी अनुसंधान हुआ) पर आधारित होनी चाहिए।


आगे की राह

अनुसंधान पाइपलाइन को प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  • लक्ष्य-आधारित अनुसंधान एवं विकासप्रोत्साहन: निजी कंपनियों को अनुसंधान एवं विकासव्यय पर दोहरी कर कटौती प्रदान की जानी चाहिए, बशर्ते वे यह सुनिश्चित करें कि उनकी फंडिंग का एक हिस्सा अनिवार्य रूप से भारतीय HEIs के साथ सहयोगी परियोजनाओं पर खर्च हो।
  • राष्ट्रीय 'डीप-टेक' फंड: एक समर्पित राष्ट्रीय 'डीप-टेक' फंड बनाया जाना चाहिए जो अनुसंधान संस्थानों से निकलने वाले उच्च जोखिम, उच्च-लाभ वाले प्रौद्योगिकियों के प्रोटोटाइप और शुरुआती चरण के स्टार्टअप्स को फंड करे।
  • प्रतिभा का पोषण: वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को उद्योग में सैबैटिकल और इंटर्नशिप लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि उन्हें उद्योग की वास्तविक ज़रूरतों की समझ हो सके।
  • बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) का सशक्तिकरण: बौद्धिक संपदा अधिकार दाखिल करने और लाइसेंस देने की प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित किया जाना चाहिए ताकि नवाचार आसानी से बाज़ार तक पहुँच सके।

निष्कर्ष

भारत का भविष्य उसकी नवाचार क्षमता पर निर्भर करता है, जिसे केवल एक मजबूत अनुसंधान पाइपलाइन के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है। वर्तमान कम GERD और उद्योग की कम भागीदारी जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाने में एक बड़ी बाधा है। सरकार, शिक्षाविदों और निजी क्षेत्र के बीच सामूहिक स्वामित्व और सहयोगात्मक वित्तपोषण मॉडल के माध्यम से ही भारत ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था बनने के अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकता है।

सामान्य अध्ययन पेपर – III  प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन


संदर्भ

भारत द्वारा 2030 में राष्ट्रमंडल खेलों (कॉमनवेल्थ गेम्स ) के शताब्दी संस्करण की मेजबानी का निर्णय उसकी बढ़ती वैश्विक खेल महत्त्वाकांक्षाओं का एक स्पष्ट प्रमाण है। यह आयोजन भारत की उस व्यापक रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत वह 2036 ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए इरादे का पत्र (Letter of Intent) प्रस्तुत कर चुका है, जिसमें अहमदाबाद प्रमुख शहर के रूप में उभरा है। यह कदम भारत को एक प्रतिष्ठित खेल गंतव्य के रूप में स्थापित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है।


कॉमनवेल्थ गेम्स  की प्रासंगिकता, चुनौतियाँ और औपनिवेशिक आलोचना

कभी ब्रिटिश साम्राज्य की शाही एकता का प्रतीक माने जाने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स  को उत्तर-औपनिवेशिक दुनिया में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है:


  • मेजबानी संकट
  • बढ़ती लागत के कारण मेजबान शहर लगातार पीछे हट रहे हैं। 2022 में डरबन की जगह बर्मिंघम ने ली।
  • 2026 के लिए ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य के हटने के बाद ग्लासगो को आगे आना पड़ा।
  • 2030 के लिए कनाडा के अल्बर्टा प्रांत के हटने के बाद भारत के अहमदाबाद ने कदम बढ़ाया है, जो इन खेलों की वित्तीय वहनीयता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
  • औपनिवेशिक मानसिकता का खेल: आलोचना और प्रासंगिकता
  • आलोचना: कॉमनवेल्थ गेम्स  को अक्सर 'औपनिवेशिक मानसिकता का खेल' कहकर आलोचना की जाती है, क्योंकि यह केवल उन देशों का समूह है जो ऐतिहासिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे। यह तर्क दिया जाता है कि ये खेल एक ऐसी प्रणाली की निरंतरता को दर्शाते हैं जिसकी प्रासंगिकता उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद समाप्त हो जानी चाहिए थी।
  • तथ्य की प्रासंगिकता: आलोचकों का मानना है कि ओलंपिक जैसे वैश्विक मंचों की तुलना में इन खेलों का सीमित सदस्य आधार (अमेरिका और चीन की अनुपस्थिति) इसे एक उप-मानक आयोजन बनाता है, जैसा कि 2019 में तत्कालीन आईओए अध्यक्ष नरिंदर बत्रा ने भी कहा था।


भारत में पूर्व उदासीनता

  • 2019 में नरिंदर बत्रा ने कॉमनवेल्थ गेम्स  को "उप-मानक" बताते हुए भारत की वापसी के लिए पैरवी की थी, जो प्रतियोगिता के प्रति देश की ऐतिहासिक उदासीनता को दर्शाता है।
  • इसके अलावा, 2010 नई दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स  के दौरान बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और अक्षमता के आरोप लगे थे, जिसने देश की संगठनात्मक साख को प्रभावित किया था।

 

भारत के लिए अवसर, योग्यता और औपनिवेशिक आलोचना पर प्रतिक्रिया

इन चुनौतियों के बावजूद, भारत कॉमनवेल्थ गेम्स  2030 में कई महत्त्वपूर्ण अवसर देखता है और आलोचना का जवाब देता है:


औपनिवेशिक आलोचना पर भारत की प्रतिक्रिया

भारत इस आयोजन को अपनी सॉफ्ट पावर के माध्यम से पुन:परिभाषित करने की दिशा में एक कदम मानता है।

  • समानता का प्रदर्शन: भारत इस मंच का उपयोग औपनिवेशिक प्रभुत्व के बजाय समान संप्रभु राष्ट्रों के बीच सहयोग और मित्रता को बढ़ावा देने के लिए करेगा।
  • वर्तमान शक्ति का प्रदर्शन: यह दिखाना कि एक बार उपनिवेश रहा राष्ट्र अब अपनी आर्थिक और संगठनात्मक शक्ति के बल पर वैश्विक स्तर पर बड़े आयोजनों की सफलतापूर्वक मेजबानी कर सकता है।


सॉफ्ट पावर माध्यम और राष्ट्रीय प्रेरणा

  • कॉमनवेल्थ गेम्स  एक महत्त्वपूर्ण सॉफ्ट पावर माध्यम के रूप में कार्य करेगा, जिसके द्वारा भारत अपनी संगठनात्मक क्षमता और सांस्कृतिक विविधता का प्रदर्शन कर सकेगा।
  • प्रेरणा स्रोत: भाला फेंक के दो बार के ओलंपिक पदक विजेता नीरज चोपड़ा जैसे विश्व स्तरीय नायकों का प्रदर्शन, और घरेलू मैदान पर बड़े टिकट वाले आयोजनों की मेजबानी एक नई पीढ़ी को प्रेरित कर सकती है।
  • खेल आकांक्षाओं में वृद्धि: भारत में अब क्रिकेट से परे ऑन-फील्ड उत्कृष्टता में विविधता लाने की वास्तविक पहल है।


बुनियादी ढांचे का विकास

  • आयोजन से जुड़े बुनियादी ढांचे का उत्थान होगा, जिससे केवल एथलीटों को बल्कि आम जनता को भी दीर्घकालिक लाभ मिलेगा, और यह 2036 ओलंपिक बोली के लिए ठोस संपत्ति प्रदान करेगा।


संभावित खतरे एवं चुनौतियाँ

  • खेल का कम होता महत्व
  • कॉमनवेल्थ गेम्स  का महत्व खेल के संदर्भ में कम हो गया है क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे वैश्विक खेल महाशक्ति राष्ट्रमंडल का हिस्सा नहीं हैं।
  • खेलों की कटौती: 2026 ग्लासगो में केवल 10 विषय शामिल होंगे, और बैडमिंटन, हॉकी, शूटिंग और क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेलों को बाहर कर दिया गया है।
  • ओलंपिक प्रदर्शन में अंतर
  • भारत ने पिछले चार कॉमनवेल्थ गेम्स  में क्रमशः 61, 66, 64, और 101 पदक जीते, लेकिन इसके बाद के ओलंपिक में वह क्रमशः सिर्फ छह, सात, दो और छह पदक ही सुरक्षित कर पाया। यह कॉमनवेल्थ गेम्स  के खेल मानकों और ओलंपिक की वास्तविक प्रतिस्पर्धा के बीच बड़े अंतर को दर्शाता है।
  • डोपिंग और वित्तीय जोखिम
  • भारत में डोपिंग की एक बढ़ती हुई समस्या है, जिसे अनियंत्रित छोड़ दिया गया तो यह अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल कर सकती है।
  • कॉमनवेल्थ गेम्स  के लिए वित्तीय परिव्यय काफी निषेधात्मक हो सकता है; 2010 के अनुभव को देखते हुए लागत नियंत्रण एक प्रमुख चुनौती है।


आगे की राह

  • पारदर्शिता और नियंत्रण: 2010 की पुनरावृत्ति से बचने के लिए वित्तीय परिव्यय और आयोजन प्रबंधन में उच्चतम स्तर की पारदर्शिता सुनिश्चित करना।
  • डोपिंग के विरुद्ध कठोर नीति: वैश्विक मानकों के अनुरूप डोपिंग नियंत्रण उपायों को सख्ती से लागू करना।
  • बुनियादी ढांचे का दीर्घकालिक उपयोग: यह सुनिश्चित करना कि निर्मित सुविधाएँ केवल कॉमनवेल्थ गेम्स  के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एथलीट प्रशिक्षण और सार्वजनिक उपयोग के लिए भी 2036 से आगे तक उपलब्ध रहें।

भारत को कॉमनवेल्थ गेम्स  2030 का उपयोग "एक मजबूत वर्तमान को प्रदर्शित करने और एक गौरवशाली भविष्य को आकार देने" के लिए करना चाहिए, जिससे औपनिवेशिक विरासत को आधुनिक भारत की सफलता की कहानी में बदला जा सके।


निष्कर्ष

अहमदाबाद 2030, भारत के लिए अवसर और आशा दोनों प्रदान करता है। यह आयोजन भारत को अपनी संगठनात्मक क्षमता को पुनः सिद्ध करने और 2036 ओलंपिक के लिए एक मजबूत नींव रखने का मौका देता है। कॉमनवेल्थ गेम्स 2030 की सफल मेजबानी भारत को औपनिवेशिक विरासत के एक मंच से उठाकर उभरती हुई खेल महाशक्ति के रूप में स्थापित करेगी, जो 2036 के ओलंपिक सपनों को साकार करने के लिए एक ठोस नींव तैयार करेगी। यह सिर्फ खेलों की मेजबानी नहीं, बल्कि नए भारत के आत्मविश्वास और वैश्विक नेतृत्व की एक स्पष्ट घोषणा होगी।


सामान्य अध्ययन पेपर – III  प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण, सुरक्षा तथा आपदा प्रबंधन।


संदर्भ

भारत में बिजली-संबंधी दुर्घटनाएँ कोई नई घटना नहीं हैं; पिछले दो दशकों में केरल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में नग्न तारों, जर्जर खंभों तथा रख-रखाव की कमी के कारण अनेक दर्दनाक मृत्यु-घटनाएँ दर्ज की गई हैं। मानसून के मौसम में करंट लगने से भी स्थायी रूप से उच्च मृत्यु-दर देखी जाती रही है। औद्योगिक क्षेत्रों में विद्युत्उपकरणों की विफलता तथा ग्रामीण क्षेत्रों में वितरण-लाइन की खराब स्थिति ने लंबे समय से सुरक्षा-जोखिम बढ़ाए हैं। इसी क्रम में 1 दिसंबर 2025 को हरदोई और खर्गोन की घटनाएँ पुनः इस संरचनात्मक समस्या को उजागर करती हैं। इन दुर्घटनाओं ने यह प्रश्न और गम्भीर बना दिया है कि अवसंरचना में निरंतर निवेश, नियमित निरीक्षण तथा सुरक्षा-मानकों के कड़े पालन के बिना सार्वजनिक जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती।


बिजली-संबंधी मृत्यु

बिजली-संबंधी मृत्यु वह मृत्यु है जो प्रत्यक्ष विद्युत् स्पर्शाघात, विद्युत् आर्क/शॉर्ट-सर्किट, विद्युत् उपकरणों की त्रुटि, वितरण-लाइन से जुड़े हादसों अथवा इनसे उत्पन्न आग/विस्फोट के कारण घटित होती है। यह घरेलू, औद्योगिक, कृषि तथा सार्वजनिक वितरण तंत्रसभी स्तरों पर संभव है।


चर्चा में क्यों?

  • देश के विभिन्न भागों में बिजली-संबंधी दुखद घटनाएँ सामने आईं। उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले के पंचमपुरवा ग्राम में एक मजदूर की विद्युत्स्पर्शाघात से मृत्यु तथा मध्य प्रदेश के खर्गोन ज़िले में विद्युत्खंभे ले जा रही ट्रैक्टरट्रॉली के पलटने से दो व्यक्तियों की मृत्युदोनों घटनाएँ यह दर्शाती हैं कि विद्युत्सुरक्षा भारत में अब भी गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है।
  • ताज़ा घटनाएँ इस बात को रेखांकित करती हैं कि ग्रामीण एवं शहरी दोनों क्षेत्रों में विद्युत्अवसंरचना की सुरक्षा तथा कार्य-प्रणालियों में अनेक कमियाँ विद्यमान हैं। यह विषय वर्तमान परिदृश्य में महत्त्वपूर्ण इसलिए भी है क्योंकि यह सार्वजनिक सुरक्षा, प्रशासनिक उत्तरदायित्व, अवसंरचनात्मक गुणवत्ता, तथा मानवाधिकार जैसी बहुविषयक चिंताओं से जुड़ा है।


दुर्घटनाओं के प्रमुख कारण

  • सुरक्षा-जागरूकता और प्रशिक्षण का अभाव: उपकरणों, तारों और वितरण-लाइन के आसपास कार्य करते समय सुरक्षा-मानकों का पालन प्रायः नहीं किया जाता।
  • जर्जर एवं अनुपयुक्त विद्युत् अवसंरचना: नग्न तार, ढीले खंभे, खराब इंसुलेशन और पुरानी वितरण-व्यवस्थाएँ दुर्घटनाओं की संभावना बढ़ाती हैं।
  • अपर्याप्त रख-रखाव और भार-वितरण की समस्या: ट्रांसफ़ॉर्मर ओवरलोड, लाइन-फॉल्ट एवं रख-रखाव की कमी प्रमुख कारक हैं।
  • परिवहन और निर्माण-स्थलों पर सुरक्षा में लापरवाही: विद्युत् सामग्री/खंभों के परिवहन में सुरक्षा-नियमों की अनदेखी।
  • कानूनी प्रवर्तन में शिथिलता: दुर्घटनाओं के बाद जांच, दंडात्मक कार्रवाई तथा जवाबदेही की प्रक्रिया अक्सर धीमी अपूर्ण रहती है।


सरकारी पहलें

  • विद्युत् मंत्रालय एवं केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा विद्युत् सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश, सुरक्षा पुस्तिकाएँ, जन-जागरूकता अभियानों तथा इलेक्ट्रिकल सेफ़्टी डे जैसी पहलें निरंतर संचालित हैं।
  • डिस्कॉम स्तर पर सुधार: कई राज्यों में वितरण-लाइनें सुरक्षित बनाने, फॉल्ट-सर्किट ब्रेकर लगाने तथा ओवरलोड प्रबंधन हेतु तकनीकी सुधार लागू किए जा रहे हैं।
  • नियामकीय ढाँचा: बिजली नियम, भारतीय मानक और केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण विनियम सुरक्षा के विस्तृत मानक प्रदान करते हैं, यद्यपि इनके क्रियान्वयन में अक्सर कमी देखी जाती है।


मानवाधिकार संस्थाएँ एवं गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका

  • राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (NSC) एवं अन्य संगठनों द्वारा विद्युत् सुरक्षा पर प्रशिक्षण, कार्यशालाएँ तथा सामुदायिक अभियानों का आयोजन किया जाता है।
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ESFI, NFPA एवं OSHA जैसी संस्थाएँ विद्युत् सुरक्षा के सर्वोत्तम मानक विकसित करती हैं, जो भारत सहित अनेक देशों के लिए मार्गदर्शक हैं।
  • NGO और मानवाधिकार समूह दुर्घटना-पीड़ितों के लिए मुआवज़ा, शीघ्र जाँच तथा सुरक्षित कार्य-परिवेश की माँग उठाते रहते हैं।


संविधान एवं मानवाधिकार

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21—“जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार”—राज्य पर यह कर्तव्य सौंपता है कि वह प्रत्येक नागरिक के जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित करे। विद्युत् अवसंरचना में लापरवाही या सुरक्षा-मानकों के अभाव के कारण यदि व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो यह जीवन-रक्षा की संवैधानिक परिधि में गंभीर प्रश्न उत्पन्न करता है। न्यायपालिका ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि सुरक्षित एवं गरिमामय जीवन Article 21 का मूल तत्व है।


विश्व परिदृश्य

विश्व के अनेक देशों में विद्युत् सुरक्षा को कठोर मानकों और कड़े प्रवर्तन द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में OSHA और NFPA द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक अनिवार्य हैं। विकसित देशों में भी विद्युत् दुर्घटनाएँ होती हैं, परन्तु निरंतर निगरानी, तकनीकी आधुनिकीकरण और जनता में उच्च स्तर की जागरूकता के कारण मृत्यु-दर अपेक्षाकृत कम है।


विश्लेषण

भारतीय संदर्भ में समस्या केवल तकनीकी नहीं, बल्कि प्रशासनिक, सामाजिक और संरचनात्मक है। सुरक्षा-नियम उपस्थित होने के बावजूद उनका पालन असंगत है। ग्रामीण क्षेत्रों में अवसंरचना पुरानी है तथा शहरी विस्तार में वितरण-तंत्र पर बढ़ते भार के कारण जोखिम बढ़ रहा है। प्रभावी समाधान के लिए नीति-निर्माताओं को डेटा-आधारित योजना, कड़े प्रवर्तन, तथा नागरिक-जागरूकता के त्रि-स्तरीय ढाँचे को प्राथमिकता देनी होगी।


मार्ग-आगे

  1. सख्त प्रवर्तन और नियमित सुरक्षा-ऑडिट: केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण और राज्य डिस्कॉम्स को अवसंरचना का नियमित निरीक्षण तथा उच्च-जोखिम क्षेत्रों की प्राथमिकता-आधारित मरम्मत सुनिश्चित करनी चाहिए।
  2. जन-जागरूकता और प्रशिक्षण विस्तार: विद्यालयों, पंचायतों, निर्माण-स्थलों और कृषि क्षेत्रों में विद्युत्सुरक्षा पर अनिवार्य प्रशिक्षण कार्यक्रम।
  3. सुरक्षित परिवहन मानक: विद्युत् खंभों, तारों और भारी उपकरणों के परिवहन के लिए सख्त तकनीकी मानदंड और लाइसेंसिंग प्रणाली।
  4. तेज़ पारदर्शी जवाबदेही: दुर्घटना के मामलों में शीघ्र जांच, दायित्व निर्धारण और दोषियों पर समयबद्ध कार्रवाई।
  5. डेटा-संग्रहण में सुधार: दुर्घटना-संबंधी राष्ट्रीय डेटाबेस को मजबूत करना ताकि नीति-निर्माण वैज्ञानिक आधार पर हो सके।


निष्कर्ष

बिजली-संबंधी मृत्यु केवल एक तकनीकी या यांत्रिक समस्या नहीं, बल्कि यह मानव-जीवन, प्रशासनिक उत्तरदायित्व और संवैधानिक मूल्यों से गहराई से जुड़ा हुआ विषय है। 1 दिसंबर 2025 की घटनाएँ यह स्मरण कराती हैं कि अवसंरचना का आधुनिकीकरण, सुरक्षा-मानकों का कड़ाई से पालन, जन-जागरूकता और पारदर्शी जवाबदेही ही भविष्य में ऐसी त्रासदियों को रोक सकती हैै। 

सामान्य अध्ययन पेपर-II शासन व्यवस्था, संविधान, राजव्यवस्था, सामाजिक न्याय और अंतर्राष्ट्रीय संबंध।


संदर्भ

प्रत्येक वर्ष 1 दिसंबर को विश्व एड्स दिवस मनाया जाता है। यह दिन HIV/AIDS महामारी के बारे में जागरूकता बढ़ाने, इससे पीड़ित लोगों के प्रति समर्थन दिखाने और इस बीमारी से मरने वालों को श्रद्धांजलि देने का अवसर प्रदान करता है। वर्ष 2025 में भी इस दिवस पर एड्स और इससे जुड़ी सह-रुग्णताओं, विशेष रूप से क्षय रोग (TB), पर ध्यान केंद्रित करने से संबंधित प्रयास और नीतियां प्रमुख रहीं,


एड्स और टीबी

एड्स और टीबी दोनों ही प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताएं हैं।


बीमारी

पूर्ण रूप

रोग कारक

प्रभाव

एड्स (AIDS)

एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी सिंड्रोम

ह्यूमन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (HIV)

यह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करता है, जिससे व्यक्ति अवसरवादी संक्रमणों और कैंसर के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाता है।

टीबी (TB)

ट्यूबरकुलोसिस / क्षय रोग

माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस  नामक जीवाणु

यह मुख्य रूप से फेफड़ों को प्रभावित करता है, लेकिन शरीर के अन्य हिस्सों (जैसे मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी, गुर्दे) में भी फैल सकता है।

HIV/AIDS से पीड़ित लोगों में टीबी होने का खतरा काफी बढ़ जाता है क्योंकि HIV प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर देता है। टीबी, HIV संक्रमित लोगों में मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। इस दोहरे संक्रमण को HIV-TB सह-संक्रमण कहा जाता है।


समाचारों में क्यों?

1 दिसंबर को विश्व एड्स दिवस मनाए जाने के कारण HIV/AIDS और संबंधित स्वास्थ्य कार्यक्रमों की प्रगति सुर्खियाँ बटोर रही है। हालिया खबरों में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री द्वारा जारी किए गए आँकड़ों में HIV संक्रमण के नए मामलों में 32% और एड्स से संबंधित मौतों में 69% की कमी की बात कही गई है, जो भारत की राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (NACP) की सफलता को दर्शाता है।


हाल की प्रासंगिक खबरें

  • रिकॉर्ड टेस्टिंग: 2024-25 में HIV टेस्टिंग का दायरा बढ़कर 6.62 करोड़ तक पहुंच गया है।
  • उपचार में वृद्धि: उपचार प्राप्त कर रहे मरीजों की संख्या 18.60 लाख से अधिक हो गई है।
  • युवाओं में चिंता: एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में HIV के 72% मामले युवाओं में दर्ज किए गए हैं, जो जागरूकता अभियानों की निरंतर आवश्यकता पर जोर देता है।
  • टीबी में कमी: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2015 से 2024 तक टीबी के मामलों में 21% की गिरावट आई है।
  • तमिलनाडु ने शुरुआत में HIV/AIDS नियंत्रण के लिए तमिलनाडु स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी (TANSACS) मॉडल अपनाया था, जिससे HIV संक्रमण में काफी कमी आई।
  • अब उसी दृष्टिकोण और अनुभव से राज्य TB नियंत्रण में भी आगे है। इसके लिए उन्होंने TBHIV दोनों को एकीकृत तरीके से नियंत्रित करना शुरू किया है निगरानी, स्क्रीनिंग, इलाज, तथा अस्पताल-लगभग पहुँच सुनिश्चित करना।
  • तमिलनाडु ने यह भी कहा है कि वो HIV और TB दोनों में समुदाय-आधारित, विकेंद्रीकृत और डिजिटल-ट्रैकिंग सिस्टम के ज़रिए काम कर रहा है जिससे इलाज, देखभाल और मृत्यु दर घटाने में मदद मिल रही है।


तमिलनाडु स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी (TANSACS):  TANSACS राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) के तहत तमिलनाडु राज्य में HIV/AIDS नियंत्रण और रोकथाम गतिविधियों के कार्यान्वयन के लिए एक नोडल एजेंसी है।

  • यह राज्य में जागरूकता अभियान चलाने, एचआईवी परीक्षण और परामर्श सेवाएं प्रदान करने, एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी केंद्रों के माध्यम से उपचार सुनिश्चित करने और भेदभाव को कम करने की दिशा में काम करती है।
  • तमिलनाडु को अक्सर HIV/AIDS नियंत्रण के लिए एक सफल मॉडल के रूप में देखा जाता है, जहाँ TANSACS ने सामुदायिक भागीदारी और मजबूत स्वास्थ्य प्रणालियों के माध्यम से महत्वपूर्ण प्रगति की है।


भारत में एड्स और टीबी की स्थिति

  • एड्स (AIDS/HIV): भारत में HIV संक्रमण की घटनाओं और एड्स से संबंधित मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आई है।
  • भारत ने पिछले 14 वर्षों में नए संक्रमणों में 48.7% और एड्स से होने वाली मौतों में 81.4% की कमी दर्ज की है।
  • भारत UNAIDS के 95-95-95 लक्ष्य (95% संक्रमित लोगों को पता हो, 95% उपचार करा रहे हों, 95% में वायरल लोड दबा हुआ हो) की दिशा में प्रगति कर रहा है।
  • युवाओं में नए संक्रमणों की उच्च दर और समाज में कलंक  और भेदभाव अब भी एक बड़ी चुनौती है।
  • टीबी (TB): भारत में टीबी की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन यह अभी भी उच्च जोखिम वाले देशों में शामिल है।
  • 2015 से 2024 तक प्रति लाख आबादी पर टीबी के मामलों में 21% की कमी आई है, जो वैश्विक औसत से लगभग दोगुनी है।
  • उपचार कवरेज बढ़कर 92% हो गया है।
  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र के SDG लक्ष्य 2030 से 5 साल पहले, 2025 तक टीबी उन्मूलन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है।

सरकारी पहल

HIV/AIDS और टीबी से निपटने के लिए भारत सरकार ने कई महत्वपूर्ण पहलें की हैं

पहल

उद्देश्य

राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (NACP)

HIV/AIDS की रोकथाम, नियंत्रण, जागरूकता, उपचार और देखभाल के लिए एक व्यापक कार्यक्रम। वर्तमान में NACP चरण-V चल रहा है।

निक्षय पोषण योजना (NPY)

टीबी रोगियों को पोषण संबंधी सहायता प्रदान करने के लिए, जिसके तहत ₹500 प्रतिमाह दिए जाते हैं।

प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान (PMTBMBA)

सामुदायिक भागीदारी और 'जन आंदोलन' के माध्यम से 2025 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य।

एचआईवी और एड्स (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 2017

HIV से पीड़ित लोगों के अधिकारों की रक्षा करना और उनके खिलाफ भेदभाव को रोकना।

राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम (NTEP)

टीबी मामलों की पहचान, उपचार और रोकथाम के लिए देशव्यापी कार्यक्रम।


विश्व संदर्भ

वैश्विक स्तर पर, HIV और TB दोनों को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं, लेकिन ये अभी भी दुनिया भर में संक्रामक रोगों से मृत्यु के प्रमुख कारणों में से हैं।

  • UNAIDS लक्ष्य: एचआईवी/एड्स पर संयुक्त राष्ट्र संयुक्त कार्यक्रम, वैश्विक समुदाय से 2030 तक एड्स महामारी को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है।
  • टीबी उन्मूलन लक्ष्य: WHO का 'एंड टीबी स्ट्रैटेजी' 2035 तक टीबी की घटनाओं को 90% और टीबी से होने वाली मौतों को 95% तक कम करने का लक्ष्य रखता है।
  • कम आय वाले देशों में जोखिम: अधिकांश मामले और मौतें विकासशील और कम आय वाले देशों में केंद्रित हैं, जहां स्वास्थ्य सुविधाओं और दवाओं तक पहुंच एक चुनौती है।


चिंता और प्रभाव

चिंताएँ

प्रभाव

सामाजिक कलंक/भेदभाव

HIV/TB से पीड़ित व्यक्ति समाज में अलगाव, उपचार से इनकार और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करते हैं।

गरीबी और कुपोषण

गरीबी टीबी और एड्स दोनों के प्रसार का एक महत्वपूर्ण कारक है, जबकि कुपोषण बीमारी की गंभीरता को बढ़ाता है।

दवा प्रतिरोध

मल्टी-ड्रग रेजिस्टेंट टीबी (MDR-TB) और एक्सटेंसिवली ड्रग रेजिस्टेंट टीबी (XDR-TB) जैसी समस्याएँ उपचार को कठिन और महँगा बनाती हैं।

स्वास्थ्य प्रणाली पर जोखिम

इन पुरानी बीमारियों के निदान, उपचार और प्रबंधन पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों पर भारी वित्तीय और मानव संसाधन का जोखिम पड़ता है।

आर्थिक उत्पादकता का नुकसान

युवा और कार्यशील आबादी में बीमारी के कारण देश की समग्र आर्थिक उत्पादकता और विकास प्रभावित होता है।


विश्लेषण

भारत ने NACP और NTEP के माध्यम से जन-जागरूकता और उपचार की पहुँच में सराहनीय प्रगति की है। HIV/AIDS से निपटने में एंटीरेट्रोवाइरल थेरेपी ने क्रांति ला दी है, जिससे यह एक पुरानी लेकिन प्रबंधनीय बीमारी बन गई है। वहीं, टीबी में नए मामलों और मृत्यु दर में कमी आई है। हालाँकि, 2025 तक टीबी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करने के लिए तीव्र प्रयास की आवश्यकता है, जिसमें सक्रिय रूप से मामलों की खोज, बेहतर पोषण सहायता, और HIV-TB सह-संक्रमण को लक्षित करने वाले एकीकृत कार्यक्रम शामिल हैं। युवाओं में संक्रमण दर और सामाजिक भेदभाव का मुद्दा भारत के प्रयासों को कमजोर कर सकता है, जिस पर नीतिगत ध्यान देना आवश्यक है।


आगे की राह

  • एकीकृत स्वास्थ्य सेवाएँ: HIV और TB सेवाओं का एकीकरण किया जाए, ताकि HIV-TB सह-संक्रमित लोगों को एक ही स्थान पर व्यापक देखभाल मिल सके।
  • सामुदायिक भागीदारी और सामाजिक सुरक्षा: निक्षय मित्र जैसी पहलों को और मजबूत करना, और टीबी/एड्स से पीड़ित लोगों के लिए पोषण और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का दायरा बढ़ाना।
  • जागरूकता और शिक्षा: युवाओं को लक्षित करते हुए यौन स्वास्थ्य (Sexual Health) और संक्रमण के तरीकों के बारे में खुले और समावेशी जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: निदान के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) से लैस एक्स-रे उपकरणों और मॉलिक्यूलर डायग्नोस्टिक्स (जैसे CBNAAT) का व्यापक उपयोग।
  • शोध और विकास: स्वदेशी और सस्ती दवा तथा टीकों के अनुसंधान और विकास में निवेश बढ़ाना।


निष्कर्ष

एड्स और टीबी दोनों ही भारत के लिए सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्राप्ति की राह में बड़ी चुनौती हैं। जबकि भारत ने दोनों बीमारियों के नियंत्रण में वैश्विक औसत से बेहतर प्रदर्शन किया है, 2025 तक टीबी उन्मूलन और 2030 तक एड्स महामारी को समाप्त करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, नवोन्मेषी समाधान और जन-जन की भागीदारी अपरिहार्य है। भेदभाव और सामाजिक कलंक को हटाकर ही हम 'सबका साथ, सबका विकास' के सिद्धांत पर चलते हुए इन बीमारियों से मुक्त एक स्वस्थ भारत का निर्माण कर सकते हैं।